बुलंदशहर : में आज भारतीय किसान संघ के प्रांत महामंत्री मेरठ डॉक्टर कुलदीप चौधरी जी ने दत्तोपंत ठेंगड़ी की जयंती10 नवंबर 1920 पर उनके जीवन पर प्रकाश डाला उन्होंने कहा वह एक बुद्धिजीवी, संगठनकर्ता, दार्शनिक, विचारक और उत्कृष्ट वक्ता थे। उनका जन्म हिन्दू पंचांग के अनुसार कार्तिक अमावस्या विक्रम संवत १९७७ अर्थात ग्रेगोरियन कैलेंडर के 10 नवंबर, 1920 को महाराष्ट्र के वर्धा जिले के अरवी ग्राम में हुआ था। उनकी माता का नाम श्रीमती जानकी देवी और पिता का नाम श्री बापूराव ठेंगड़ी था। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा आर्वी (वर्धा) और उच्चतर शिक्षा नागपुर से हुई जहां से उन्होंने बीए, एलएलबी की पढ़ाई प्रथम श्रेणी में पूर्ण की। ठेंगड़ीजी बाल्यकाल से ही सामाजिक गतिविधियों से जुड़ गए थे। आयु के 12 वे वर्ष में महात्मा गाँधी जी के अहिंसा आंदोलन में शामिल हुए। वह आर्वी वानर सेना तालुका समिति के अध्यक्ष रहे। नगरपालिका हाईस्कूल आर्वी विद्यार्थी संघ के अध्यक्ष रहे, नगरपालिका हाईस्कूल विद्यालय के गरीब छात्र फण्ड समिति (1935-36) के सचिव रहे तथा आर्वी गोवारी झुग्गी झोपड़ी मंडल के संगठक रहे। वर्ष 1936 में श्री बापूराव पालघीकर जी के माध्यम से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े।यह वही समय था, जब उनका संपर्क राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार से हुआ और इस भेंट ने ठेंगड़ी जी के मन में संघ तत्व का बीजारोपण किया। उन्होंने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया और 1936-38 में हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचएसआरए) के सदस्य रहे। वह संघ के दूसरे सरसंघसंचालक श्री माधव सदाशिव गोलवलकर, दीनदयाल उपाध्याय और बाबा साहेब अंबेडकर से प्रभावित थे। ठेंगड़ी जी 1942 में प्रचारक के रूप में संघ से जुड़े। उन्होंने 1942-44 के बीच केरल, 1945-47 में बंगाल और 1948-49 में असम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रचारक के रूप में काम किया।ठेंगड़ी जी ने भारतीय मजदूर संघ (1955), भारतीय किसान संघ (1979), स्वदेशी जागरण मंच (1991), सामाजिक समरसता मंच (1983), सर्व-पंथ समादर मंच (1991) और पर्यावरण मंच जैसे आज के कई संगठनों की स्थापना, मार्गदर्शन और पोषण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई; साथ ही साथ वह अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद, अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत और भारतीय विचार केंद्र के संस्थापक सदस्य भी रहे।वह हमेशा समग्रता में विश्वास करते थे और राजनीतिक छुआछूत के विचार का खंडन करते थे। उन्होंने हिंदू धर्म और भारतीय दर्शन के मूल दर्शन को एक साथ बनाए रखते हुए विभिन्न क्षेत्रों के कई संगठनों के लिए विचार पथ का निर्माण किया।वह 1964-76 के दौरान दो कार्यकाल तक राज्यसभा के सदस्य रहे। उन्होंने मोरारजी देसाई की सरकार में कोई पद स्वीकार नहीं किया। बाद में उन्होंने पद्मविभूषण स्वीकार करने से भी मना कर दिया था।ठेंगड़ी जी ने दर्जनों पुस्तकें लिखी जिसमें ‘एकात्म मानवदर्शन’, ‘हिन्दू राष्ट्र चिन्तन’, ‘कार्यकर्ता’, ‘देशप्रेम की अभिव्यक्ति स्वदेशी’, ‘संकेतरेखा’, ‘’अर्थ या अनर्थ’, ‘आत्म-विलोपी आबाजी’, ‘आदर्श आत्मविलोपी मोरोपंत पिंगले’, ‘आपात स्थिति और बीएमएस’, ‘एकात्मता के पुजारी डा. बाबा साहेब अंबेडकर’, ‘दीनदयाल उपाध्याय व्यक्ति और विचार’, ‘भारतीय किसान संघ’, ‘कम्युनिज्म अपनी ही कसौटी पर’, ‘पश्चिमीकरण के बिना आधुनिकीकरण’ आदि प्रमुख हैं।वह अपने निजी अनुभव से अंबेडकर के व्यक्तित्व को सच्चे प्रकाश में प्रस्तुत करने के लिए बहुत उत्सुक थे। 14 अक्टूबर 2004 को मस्तिष्क आघात से निधन से पहले “डॉ अंबेडकर” उनकी अंतिम पुस्तक थी जिसे उन्होंने जुलाई 2004 में पूरा किया था।उनकी प्रसिद्ध टिप्पणियां“हम इस विचार को नहीं मानते हैं कि पश्चिमी प्रतिमान प्रगति और विकास का सार्वभौमिक मॉडल है, हमें नहीं लगता कि आधुनिकीकरण का मतलब पाश्चात्यीकरण है।”“कार्यकर्ता, दुनिया को एकजुट करें।““रोजगार हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।““उद्योग का श्रमीकरण करो, राष्ट्र का औद्योगीकरण करो, श्रम का राष्ट्रीयकरण करो।““लाल गुलामी छोड़ कर, बोलो वंदेमातरम”“राजनेता, अगले चुनाव के बारे में सोचता है, राज प्रशासक अगली पीढ़ी के बारे में और राष्ट्र निर्माता कई भावी पीढ़ियों के बारे में सोचता है। एक राष्ट्र निर्माता के लिए विवशता जैसी कोई भी वस्तु नहीं होती है। वह समझौता नहीं करता है, सिद्धांतों को समझौतों की वेदी पर नहीं मारता है, वह कठिन रास्ता चुनता है।”“ज्ञान और सत्य चरित्र में सार्वभौमिक हैं। सत्य कोई वर्ग, जाति या राष्ट्र नहीं जानता है। हम सभी लोगों से ज्ञान को आत्मसात करने के पक्ष में हैं। लेकिन हमें अपनी पिछली परंपराओं और वर्तमान आवश्यकताओं के आलोक में इसकी छानबीन करनी चाहिए और फिर यह तय करना चाहिए कि इसे कितना अपनाया जाना चाहिए, कितना अपनाया जा चुका है, कितना अस्वीकार किया गया है अथवा करना चाहिए।”“तथाकथित उन्नत देशों की अंधी नकल का कोई फायदा नहीं होगा। गुरु देव टैगोर का मानना था कि भगवान ने अलग-अलग देशों को अलग-अलग प्रश्नपत्र दिए हैं।”“जिन तथ्यों और आंकड़ों पर मार्क्स ने काम किया वह अपर्याप्त थे, उनकी जानकारी त्रुटिपूर्ण, उनके दृष्टिकोण अवैज्ञानिक, उनके निष्कर्ष गलत, उनकी भविष्यवाणियां असत्य, और उनके सिद्धांत तर्कसंगत नहीं थे। मार्क्सवाद न्यूटन के विज्ञान, डार्विन के विकासवाद और हेगेल के द्वंद्व वाद पर उगा एक बौद्धिक परजीवी फफूंद है…। जो लोग मार्क्सवाद की तुलना हिंदू धर्म से करने की कोशिश करते हैं, वे दोनों के बारे में अपनी अज्ञानता को नकारने की गलती करते हैं।““कट्टर मुसलमानों का दावा है कि इस्लाम किसी भी तरह की राष्ट्र पूजा की अनुमति नहीं देता है और मुसलमानों को राष्ट्रवाद के खिलाफ लड़ना चाहिए। लेकिन तथाकथित मुस्लिम देशों में राष्ट्रवादियों ने इस बुराई का सफलतापूर्वक मुकाबला किया। इस्लाम के मूल सिद्धांत देशभक्ति की भावना के साथ पर्याप्त रूप से समन्वित हैं।”“हिंदू कानून पूरी मानव जाति को गले लगा सकता है मात्र उन लोगों के अपवाद के साथ जो स्वयं को इस लाभ को लेने से इनकार करते हैं।“देशप्रेम की साकार अभिव्यक्ति – ‘स्वदेशी’दत्तोपंत ठेंगड़ी ने ‘स्वदेशी’ को देशभक्ति की व्यावहारिक अभिव्यक्ति के रूप में परिभाषित किया। यह ‘स्वदेशी’ की एक बहुत ही आकर्षक और सभी के लिए स्वीकार्य परिभाषा है जो राष्ट्रीयता की भावना और कार्य की इच्छा को सामने लाती है। हालांकि, उन्होंने बताया कि देशभक्ति का अर्थ दूसरे देशों की ओर से मुंह मोड़ना नहीं है बल्कि एकात्म मानव दर्शन के सिद्धांत का पालन करना है। हम समानता और आपसी सम्मान के आधार पर अंतरराष्ट्रीय सहयोग के लिए हमेशा तैयार हैं।उन्होंने लिखा “यह पूर्वाग्रह रखना गलत है कि ‘स्वदेशी’ केवल वस्तुओं या सेवाओं से संबंधित है बल्कि इसके उससे भी अधिक प्रासंगिक पहलू है। मूलतः यह राष्ट्रीय आत्मनिर्भरता, राष्ट्रीय संप्रभुता और स्वतंत्रता के संरक्षण, और समान स्तर पर अंतरराष्ट्रीय सहयोग प्राप्त करने के लिए निर्धारित भावना से संबंधित है…। ‘स्वदेशी’ केवल भौतिक वस्तुओं तक ही सीमित आर्थिक मामला नहीं था बल्कि राष्ट्रीय जीवन के सभी आयामों को अंगीकृत करने वाली व्यापक विचारधारा है।हर समाज की अपनी संस्कृति होती है और हर देश की प्रगति और विकास के माँडल का उस देश के सांस्कृतिक मूल्यों के साथ तारतम्य होना चाहिए। आधुनिक बनने का मतलब पश्चिमीकरण नहीं है। आधुनिकीकरण के क्रम में राष्ट्रीय पहचानों को गड्ड-मड्ड कर देने की कोशिशों का विरोध करते हैं। युगदृष्टा – दीनदयाल उपाध्याय दतोपंत ठेंगड़ी जी ने दीनदयाल जी के तत्व चिंतन, व्यक्तित्व और विचार पर बहुत ही गहनता से अध्ययन किया है इसी कारण उनकी कई पुस्तकें दीनदयाल जी के कार्यों को समर्पित हैं। दत्तोपंत ठेंगड़ी जी के अनुसार दीनदयाल उपाध्याय सच्चे राष्ट्रभक्त थे। उनकी राष्ट्रीयता की धारणा मात्र काल्पनिक न थी, अपितु वह बड़ी व्यवहारिक थी। इसके साथ उनकी राष्ट्रभक्ति उनके अंतर राष्ट्रीयवादी होने में बाधक नहीं थी। उल्टे, अन्तर्राष्ट्रीयता उनके प्रगतिशील राष्ट्रवाद का स्वाभाविक परिणाम थी। उन्होंने यह अनुभव किया था कि किसी व्यक्ति का परिवार से लेकर ब्रह्राण्ड तक सभी से लगाव उसकी चेतना के विकास की बाह्रा अभिव्यक्ति मात्र है। इस प्रकार, समाज के सभी अंगों के साथ समान रूप से तथा एक साथ ही, उसमें से किसी एक के साथ भी बिना कोई अन्याय किये, लगाव बनाया रखा जा सकता है। आवश्यकता होती है एक यथार्थवादी तथा भेद-विहीन दृष्टिकोण की। मानव की भी कल्पना भेद विहीन रूप में की जानी चाहिए। किसी व्यक्ति के शरीर, मस्तिष्क, दृष्टि एवं आत्मा की कल्पना सम्यक् रूप से ही, न की अलग-अलग करनी चाहिए। इसी के आधार पर दीनदयाल जी ने अपने ‘एकात्म मानवदर्शन’ के सिद्धांत का प्रतिपादन किया, जो पाश्चात्य देशों की संकुचित एवं सीमाबद्ध विचारधाराओं के ठीक विपरित है। इन विदेशी विचारधाराओं के ही कारण जीवन के सभी स्तरों तथा क्षेत्रों में पारस्परिक झगड़े तथा संघर्ष उत्पन्न हो गये है। बीज, अंकुर, तना, शाखा, तथा फल एक ही अबाधित विकास प्रक्रिया के अंग है। उनमें आपस में कोई विपरितता या अनन्यता नहीं है।दत्तोपंत ठेंगड़ी जी का मानना है कि धर्म के अग्रदूत होने के नाते दीनदयाल जी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक बन गये। वह जानते थे कि जब तक राष्ट्र एक दृढ आधार पर संगठित नहीं हो जाता, सिद्धान्तों के प्रतिपादन से कोई लाभ नहीं। उन्होंने अनुभव किया कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सारे राष्ट्र के मनोवैज्ञानिक एवं धारणा के अनुकूल है। उन्होंने संघ की वर्तमान शाखाओं को आदर्श राष्ट्र के आधारभूत ढांचे के रूप में देखा और उसे दृढ बनाने के लिए कठिन परिश्रम किया।वह देश के पहले राजनीतिक नेता थे, जिन्होंने राष्ट्र की पारम्परिक परिभाषा एवं तत्संबंधी धारणा को एक नया रूप दिया। उन्होंने कहा कि प्रत्येक राष्ट्र का अपना अन्त:करण अपना चित् होता है। राष्ट्र को जागरूकता एवं चेतना प्रदान करने वाली शक्ति एवं उर्जा उसका ‘विराट’ है। वह चित् द्वारा उपयुक्त दिशा में प्रेरित होता है। किसी राष्ट्र के जीवन में ‘विराट’ का वही स्थान है, जो शरीर में प्राण का। जिस प्रकार प्राण शरीर के विभिन्न अंगों को शक्ति प्रदान करता है, बुद्धि को ताजा करता है और मानसिक एवं शारीरिक संतुलन ठीक रखता है, उसी प्रकार किसी राष्ट्र में शक्तिशाली ‘विराट’ के रहने से ही लोकतंत्र सफल हो सकता है तथा सरकार कारगार हो सकती है। जब ‘विराट’ जागा हुआ रहता है तो विभिन्नता पारस्परिक संघर्ष उत्पन्न नहीं करती, तथा राष्ट्र के लोग एक दूसरे के साथ सहयोग करते है, जैसे मानव शरीर के विभिन्न अंग या किसी परिवार के विभिन्न सदस्य एक दूसरे के साथ सहयोग करते है।संविधान के अनुच्छेद 370, सीमावर्ती राज्यों, भाषावार राज्यों, एकात्म प्रकार की सरकार, गोवा, कच्छ, चीनी, तथा पाकिस्तानी आक्रमणों जैसे विभिन्न प्रश्नों के संबंध में जो दृष्टिकोण अपनाया था, उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि दीनदयाल जी को मुख्य पथ प्रदर्शक के रूप में पाकर इस राजनीतिक दल ने किस प्रकार राष्ट्र के ‘विराट’ को फिर से जगाने का श्रेष्ठ कार्य पहले से ही अपना लिया था।दत्तोपंत ठेंगड़ी जी के अनुसार दीनदयाल जी एक युगदृष्टा थे। किसी काल चक्र की भांति स्वंय को शताब्दियों के आरपार ले जा सकते थे। वह प्राचीन दृष्टाओं तथा आने वाली पीढ़ियों, दोनों का ही सामना कर सकते थे। वह प्राचीन ऋषियों की बुद्धिमत्ता के सहारे आधुनिक समस्याओं का हल हमारे लिए निकाल देते थे। वह पहले से ही जान गये थे और पहचान गये थे कि सुदूर भविष्य में मानव के समक्ष कौन सी समस्याएं आएगी और उनके लिए उन्होंने सनातन धर्म के आधार पर अचूक उपचार बतलाये।डॉ. बाबा साहेब अम्बेडकरदत्तोपंत ठेंगड़ी जी की पुस्तकों में बाबा साहेब अम्बेडकर जी के व्यक्तित्व और विचारों पर भी गहनता से अध्ययन मिलता है। उनका मानना है कि विदेशी शासकों ने भारत में अपने शासन का औचित्य सिद्ध करने के लिए अनेक भ्रान्तियां निर्माण की थी। बाबा साहेब ने उनका अत्यन्त कठोरता पूर्वक खंडन किया। उन्होंने अपने सामने आने वाले प्रश्नों को कभी भावावेश में नहीं देखा। उन्होंने उनका गहराई से अध्ययन किया तथा उनका अत्यंत तर्कयुक्त निराकरण प्रस्तुत किया। दत्तोपंत ठेंगड़ी जी अम्बेडकर जी के बारे में बताते हुए कहते हैं कि मुसलमान या ईसाई बनने में उन्हें क्या आपत्ति थी यह उनसे पूछा भी गया। इस प्रश्न के उत्तर में जो कुछ उन्होंने कहा वह जहाँ उनकी प्रखर राष्ट्रवादी दूरदर्शिता का परिचायक है वहीं वह तथाकथित असांप्रदायिकता का देश भर में ढोल पीटने वाले नेताओं की कान खिंचाई भी है। उन्होंने साहस के साथ कहा कि ऐतिहासिक तथा वैश्विक कारणों से मुसलमान या ईसाई बनने वाले भारतीय के मन मस्तिष्क की दिशा बदल सकती है। वह भारत, भारतीयता, यहां का इतिहास, यहां की परम्परा आदि से विमुख हो जाते हैं, यहां तक कि वे अपने भारतीय होने के बारे में कठिनाई से ही अनुभव कर पाते हैं। बौद्ध बनने से केवल उपासना की प्रक्रिया ही बदलती है। सामाजिक अथवा धार्मिक दृष्टि से कुछ मान्यतायें ही बदलती हैं परन्तु राष्ट्रीयता, राष्ट्रभिमान आदि में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता। जबकि इस्लाम या ईसाई मत ग्रहण करने में एक प्रकार से व्यक्ति राष्ट्रत्व से ही असंबद्ध (Denationalized) हो जाता है। उसका अराष्ट्रीयकरण हो जाता है। अपने पीड़ित बन्धुओं के उत्थान में भी उन्होंने इस बात को ध्यान में रखा कि कहीं इस परिवर्तन के परिणामस्वरूप राष्ट्रीयता अथवा राष्ट्रीय एकात्मकता पर कोई आँच न आवे। उनके इस निर्णय लेने में स्वभावत: उनकी महानता ही प्रकट होती हैं। उनके तनिक भी दांभिकता या अपने को बड़ा बताने की भावना नहीं थी। यदि उनमें तनिक भी इस प्रकार की बात होती तो निश्चय ही मुसलमान या ईसाई उन्हें अपने कंधों पर उछालते तथा दुनियां में अपने भारत विजय का ढिंढोरा पीटते। राष्ट्रीय एकात्मता की रक्षा के लिये उन्होंने इस अनायास प्राप्त होने वाली ख्याति का तिरस्कार किया। उन्होंने हर स्थिति में भारतीय ही बने रहना पसंद किया।दत्तोपंत ठेंगड़ी जी अपनी और अम्बेडकर जी की भेंट के बारे में भी बताते हैं कि – मेरा सौभाग्य है कि मुझे उन्हें केवल निकट से ही देखने का नहीं अपितु प्रत्यक्ष वार्तालाप एवं विचार विनिमय का भी अवसर मिला। एक बार बातचीत में कश्मीर संबंधी उनके विशेष दृष्टिकोण का पता चला। वे कश्मीर को पाकिस्तान को दे देना चाहिए इस मत के थे। उनका यह भाव हिन्दू और मुसलमान की सामाजिक मनोभूमिका से संबद्ध था। उनका मत था कि कट्टर मुसलमान कभी किसी उस राष्ट्र का राष्ट्रीय नहीं बन सकता जहां शरीयत का कानून न चलता हो। एक समय की घटना है वे तब संविधान सभा (Constituent Assembly) की ध्वज समिति (Flag Committee) के सदस्य थे। एक बार बम्बई के हवाई अड्डे पर उनसे एक प्रतिनिधि मण्डल मिलने गया। प्रतिनिधि मण्डल ने उनसे प्रार्थना की कि वे ध्वज समिति में अपने परम्परागत गेरुवे ध्वज को भारत का राष्ट्रध्वज बनाने के लिये आग्रहपूर्वक प्रतिपादन करें। प्रतिनिधि मण्डल ने इसके लिये एक गेरुवे रंग के झंडे का नमूना उन्हें भेंट किया। श्रद्धेय बाबा साहेब ने ध्वज स्वीकार करते हुए उन्हें यह सलाह दी कि मैं तो यह प्रस्तावित कर दूंगा, परन्तु इतने से काम नहीं बनेगा। इसके साथ-साथ इस निमित्त बाहर बड़ा जन-आन्दोलन भी खड़ा करना होगा तभी मेरे प्रस्ताव को बल मिलेगा। उन्होंने अपना वचन निश्चित ही पूरा किया परन्तु विशिष्ट परिस्थितिवश बाहर आवश्यक जन-आन्दोलन खड़ा न किया जा सका और परिणामस्वरूप यह योजना सफल न हो सकी।दत्तोपंत जी बताते हैं कि एक बार उनसे वार्तालाप में उनके बौद्ध मत में दीक्षित होने की बात आई। उन्होंने बात ध्यानपूर्वक सुनी और तब वे थोड़ा अधिक गम्भीर होकर शांत भाव से बोले, “तुम्हारे संस्कारों के कारण मैं तुम्हारी भावनाओं की व्याकुलता को भलीभांति समझता हूं। तुम्हारे हिन्दू संगठन के कार्य से मैं भली भांति परिचित एवं प्रभावित भी हूं। परन्तु हमें काल की गति को पहचानना होगा। मेरे जीवन का अब यह संध्याकाल आ गया है। अपने जनमानस पर चारों ओर विदेशी विचार धाराओं का आक्रमण चल रहा है। इससे स्वदेशी जनमानस दिग्भ्रमित होने की पूरी संभावना है। राष्ट्र की मूल जीवन-धारा से यहां के दलित समाज को, अलग विधर्मी एवं विदेशाभिमुख बनाने का प्रयास जोरों से चल रहा है। यह गति प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। यहां तक कि यहां का मान्यता प्राप्त नेतृत्व भी इस प्रवाह में बहने लगा है और अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए धर्म निरपेक्षता, प्रगतिशीलता, उन्नति आदि नामों पर इसे बढ़ावा देने लगा है। इस सब परिस्थिति का लाभ साम्यवादी बड़े मजे से उठा रहे हैं। दूसरी और विरोध की बात तो अलग है मेरे अनेक साथी कार्यकर्त्ता भी दरिद्रता, दीनता, असमानता, अस्पृश्यता आदि से चिढ़कर इसी प्रवाह में बहने को आतुर हैं। फिर सर्वसाधारण की बात क्या कहें? अत: इन्हें कोई न कोई नई दिशा मिलना आवश्यक है जिससे वे राष्ट्र जीवन की मूलधारा से अलग न हो जावें। साथ ही अपने सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक जीवन में कुछ परिवर्तन लाने में भी समर्थ हो सकें। इसी विचार से मैंने यह मार्ग चुना है।“ इस दृष्टि से श्रद्धेय बाबासाहब ने आवश्यक सतर्कता भी बरती थी। उनका प्रयास था कि कोई भी स्वबांधव चाहे उसे उसके राजनीतिक या धार्मिक-सामाजिक विचार मान्य न हों अपनी मूल जीवन धारा से बाहर न जाने पावे। श्रद्धेय बाबासाहेब दलित स्वबांधवों के आगामी नेतृत्व के बारे में भी सदैव चिन्तित रहते थे। उनका विचार था कि इस युवा वर्ग को भविष्य में कोई योग्य कर्णधार न मिला तो इन्हें साम्यवाद के प्रभाव या नये भीषण दास्य से बचाना असम्भव हो जावेगा। विदेशी वादों के प्रभाव से अपने युवकों को बचाने का उन्होंने भरसक प्रयास किया। दत्तोपंत जी के अनुसार बौद्ध मत में दीक्षित होने में उनका एक और विचार था विश्व के मानचित्र पर यदि हम दृष्टि डालें तो एक बात ध्यान में आवेगी कि दक्षिण पूर्वी एशिया के देशों में बहुत बड़ी संख्या में बौद्ध रहते हैं। बौद्ध मतावलम्बी होने के कारण ये देश स्वभावत: भारत की और नेतृत्व के लिये देखते हैं। अत: नवजागृति के कारण इन देशों के भारत के साथ प्रगाढ़ धार्मिक सांस्कृतिक सम्बन्ध स्थापित होकर उसके नेतृत्व मे विश्व में एक नयी शक्ति का उदय होगा। यह था उनका स्वप्न। इसीलिये चीन के तिब्बत संबंधी मंसूबों का उन्होंने डटकर विरोध किया तथा भारत सरकार की इस संबंध में अदूरदर्शितापूर्ण एवं दब्बूनीति की निंदा की। उन्होंने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को इस बारे में बार-बार चेतावनी दी परन्तु दुर्भाग्य से प्रधानमंत्री नेहरू ने उनकी उपेक्षा ही की। भारत की सुरक्षा की दृष्टि से तो आवश्यक था ही, बौद्ध जगत का श्रद्धा केन्द्र होने के कारण भी तिब्बत का स्वतंत्र रहना आवश्यक था। यद्धपि चीन भी बौद्ध बहुल देश था परन्तु साम्यवादी हो जाने में उसका अपने प्राचीन सांस्कृतिक विरासत से सम्बन्ध विच्छेद हो चुका था। श्रद्धेय बाबासाहब की यह अपेक्षा थी कि भारत दक्षिण पूर्वी देशों के शक्ति समूह का नेतृत्व करता हुआ साम्यवाद का मुकाबला करता। इस प्रकार समूचे बौद्ध जगत की श्रद्धा पुन: भारत के प्रति प्रस्थापित होती। परन्तु हमारे यहां के भीरु नेतृत्व ने विश्व में अपनी अदूरदर्शिता एव अक्षमता तो प्रकट की ही परन्तु साथ ही विश्व नेतृत्व का अत्यन्त उपयुक्त अवसर खो दिया।तीसरा रास्ताठेंगड़ी जी ने साम्यवाद के समाप्त होने और पूंजीवाद के संभावित पतन की भविष्यवाणी पीटर ड्रकर और पॉल सैमुअलसन और अन्य विचारकों से बहुत पहले ही कर दी थी।ठेंगड़ी जी कहते हैं, हमें अपनी संस्कृति, अपनी पिछली परंपराओं, वर्तमान आवश्यकताओं और भविष्य के लिए आकांक्षाओं के आलोक में प्रगति और विकास के अपने मॉडल की कल्पना करनी चाहिए। विकास का कोई भी विकल्प जो समाज के सांस्कृतिक मूल को ध्यान में रखते हुए नहीं बनाया गया हो, वह समाज के लिए लाभप्रद नहीं होगा।तृतीय मार्ग के लिए मानव जाति की सुगबुगाहट-पश्चिमी विचारधाराओं की दयनीय विफलता के बाद, नियति अंधेरे में डूबी दुनिया को भारत द्वारा नया नेतृत्व प्रदान करने का संकेत दे रही है। मानव जाति एक नई व्यवस्था के लिए उत्सुक है जिसे ‘तृतीय मार्ग’ कहा जाता है।वैश्वीकरणदत्तोपंत जी ने लिखा है कि वास्तविक वैश्वीकरण हिंदू विरासत का एक अभिन्न अंग है। प्राचीन काल से ही हम सदैव अपने आप को पूरी मानवता का अभिन्न अंग मानते रहे हैं। हमने कभी भी अपने लिए एक अलग पहचान बनाने की चिंता नहीं की। हमने सम्पूर्ण मनुष्य जाति से अपनी पहचान जोड़ी है। ‘पूरी पृथ्वी हमारा परिवार है’ अर्थात ‘वसुधैव कुटुंबकम’ हमारा आदर्श वाक्य रहा है।… लेकिन अब भूमिकाएं उलट गई हैं। वैश्वीकरण का ज्ञान हमें उन लोगों द्वारा दिया जा रहा है जो अपने साम्राज्यवादी शोषण और यहां तक कि नरसंहार के इतिहास के लिए जाने जाते हैं। शैतान बाइबल का संदर्भ दे रहे हैं। आधिपत्य वैश्वीकरण के रूप में अपनी शोभा यात्रा निकाल रहा है! ठेंगड़ी जी ने कहा कि दक्षिणी गोलार्ध के देशों के बीच स्वदेशी और आपसी सहयोग के बारे में सोच हमें आगे बढ़ने के लिए रास्ता दिखाएगा।
भारतीय किसान संघ के संस्थापक श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी जयंती पर किए गए याद
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